मंगलवार, 11 जनवरी 2011

अव्वल माओवाद न हो अलकायदा का आतंकवाद हो


आशुतोष जो कुछ कह रहे हैं उसका मतलब यह नहीं है कि आपके असहमति के स्वर कानून की नजर में वैध नहीं है . बल्कि आशुतोष यह कहना चाह रहे हैं कि आप भी व्यवस्था के अंग है और इस लिहाज से आपको भी कानून का सम्मान करना चाहिए . दरअसल आशुतोष के एक अख़बार में छपे लेख जिसमे उन्होंने लिखा है कि 'विनायक सेन अंग्रेजी बोलते हैं , अच्छे आदमी हैं , यह स्वागतयोग्य तथ्य है, लेकिन यह कहां का सच है कि मीडिया का एक तबका इस आधार पर यह प्रोजेक्ट करे कि बिनायक सेन अपराधी नहीं संत हैं, वह दोषी नहीं पीडि़त हैं।मीडिया अपनी प्रतिस्पर्धा में यह भूल गया कि बिनायक सेन के खिलाफ कार्रवाई किसी सरकारी एजेंसी ने नहीं, सीबीआई और पुलिस ने नहीं की है। अदालत में मुकदमा चला है। तथ्य और साक्ष्य के आधार पर जज महोदय ने फैसला सुनाया है। लेकिन दिल्ली के कुछ अंग्रेजीदां वामपंथ समर्थक विद्वान अदालत की मंशा पर सवाल खड़े कर रहे हैं।' मतलब साफ़ है आशुतोष की मंशा असहमति के स्वर के खिलाफ है . आशुतोष भी पूंजी -सैन्य के साम्राज्यवादी गठजोड़ के सुर -में सुर मिलाते यही कहना चाहते है की वैकल्पिक आन्दोलन का बचा -खुचा तेवर भी पापुलर मीडिया की तरह कुंद हो जाये और पापुलर मीडिया की तरह वैकल्पिक आन्दोलन भी व्यवस्था का अंग बनते जाने की व्यापक प्रक्रिया में शामिल हो जाये . हालाँकि आशुतोष का यह कहना भी गलत नहीं है . वैकल्पिक आन्दोलनों का क्या हश्र हुआ , यह हम सभी जानते हैं . इस निराशाजनक और विकल्पहीन परिदृश्य में पिछले चार दशकों में उभरे वैकल्पिक आन्दोलन और तत्कालीन शासक वर्ग के खिलाफ असहमति और अवज्ञा के आन्दोलन पर एक नजर डालें तो वो सारा प्रपंच उभर कर सामने आ जाता है कि किस तरह पूंजी -सैनिक और नौकरशाह के साम्राज्यवादी गठजोड़ के तंत्र ने वैकल्पिक आन्दोलन को धन के दुष्चक्र में फंसा कर कुंद कर दिया . सामाजिक आन्दोलन चाहे वो पर्यावरण से जुड़ा हो या मानवाधिकार से , इसके दुर्गति का कारण बड़े पैमाने पर अंतर्राष्ट्रीय पूंजी का घुसपैठ है . वर्ल्ड बैंक या विकसित मुल्कों ने एनजीओ के माध्यम से मुफ्त में इन आन्दोलनों के ऊपर अनाप -शनाप धन की वर्षा नहीं कर दी . इसमें इनके अपने छिपे एजेंडे हैं . दरअसल बड़े पैमाने पर व्यवस्था द्वारा अपने जाल में फंसाने का यह क्रम काफी गहरा और व्यापक है . व्यवस्था बहुत चालाकी के साथ प्रतिरोध और विविधता के ताकतों को पहले खासी छुट देती है और फिर आसानी से बाजारीकरण की प्रक्रिया में शामिल कर लेती है . वैकल्पिक आन्दोलनों को व्यवस्था द्वारा हडपे जाने की यह समस्या अब काफी गंभीर हो चुकी है . जनता के चिंतन को प्रभावित करने वाले बुद्धिजीवियों और प्रमुख कार्यकर्ताओं को ख़रीदा जा रहा है . यह खरीददारी मोटे पारिश्रमिकों , प्रोजेक्ट , यात्रा खर्चों और विदेशी यात्राओं के जरिये ही नहीं की जा रही है बल्कि और भी गहराई में जाकर मान्यता और प्रशस्ति के जरिये उन्हें व्यवस्था में अंगीकार कर भी की जा रही है . बाजारीकरण के जरिये व्यवस्था का अंग बनते चले जाने की इस प्रक्रिया में मीडिया की भूमिका सबसे ज्यादा संदिग्ध है .. क्योंकि कारपोरेट अर्थतंत्र पर दौड़ने वाली मीडिया विभिन्न असहमतियों को बाजार के प्रतिमान की तरफ धकेलनेवाला वाला सबसे शक्तिशाली उत्प्रेरक है . आशुतोष आज विनायक सेन की सजा को जिस तरह न्यायसंगत ठहराने की साजिश रच रहें हैं , उसके पीछे बाजार का दवाब है और आशुतोष पूंजी -सैन्य -नौकरशाह के घोषित गठजोड़ का कारपोरेट एजेंट . वो जिस मंशा से कानून का सम्मान करने की बात कह रहें है , इसका तो यही मतलब है कि विनायक सेन चोर हैं , हत्यारा हैं या फिर कानून की नजर में कोई गंभीर अपराधी . इसलिए उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी है .

बड़ी चालाकी से मीडिया के हाईपर एक्टिविटी को दोषी ठहराते आशुतोष ये फैसला भी सुना जाते हैं की विनायक सेन देशद्रोही हैं . उन्हें ये बात नागवार गुजर रही है की नागरिक समाज क्यों विनायक सेन के पक्ष में लामबंद हो रहा है .वो चाहते हैं की लोग कानून के फैसले का सम्मान करें. वो कहते हैं की मीडिया अति सक्रियतावाद के उत्साह में जज बनती जा रही है . लेकिन दूसरी तरफ आशुतोष खुद जज बन फैसला सुनाने लगते हैं . इतना ही नहीं आशुतोष लक्ष्मण रेखा की लाज बचाते वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे का सहारा ले रहें हैं .मनो उनका कहा ही अंतिम सत्य है . हरीश साल्वे कह रहे हैं कि अदालत से गलती हो सकती है, वह गलत फैसला सुना सकती है, हो सकता है आजीवन कारावास उचित सजा न हो, हो सकता है अतिउत्साह में उनके खिलाफ कार्रवाई हुई हो, लेकिन यह फैसला भारतीय संविधान के सिद्धांतों के तहत गठित अदालत का है और उसका सम्मान होना चाहिए। उसके फैसले पर अगर किसी को आपत्ति है तो उसका निराकरण अदालत की मंशा को कठघरे में खड़ा कर के नहीं किया जा सकता है, न ही सड़कों पर माहौल बना कर। यह कानून के शासन का अपमान है। कानून का विक्टोरियन ककहरा पढने वाले हरीश साल्वे वही वकील हैं , जिनकी शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट के चर्चित वकील प्रशांत भूषण पर अवमानना का मुकदमा चल रहा है और प्रशांत भूषण वही वकील हैं जिन्होंने ख़म ठोक कर कहा था की सुप्रीम कोर्ट के आधे से ज्यादा जज भ्रष्ट हैं . यहाँ सवाल यह नहीं है की कौन सही है या कौन गलत . मगर इतना तो तय है की न्याय की निर्दिष्ट संज्ञा भी अब राज्य द्वारा तय की जाती है . एक तरफ राज्य के लिए अपनी सम्पति रक्षा के लिए हिंसा का प्रयोग वैध है तो दूसरी तरफ वंचित आदिवासियों का जी पाने के लिए किया गया प्रतिरोध हिंसा और अवैध .



पेशे से वकील और कानून की वैधता पर बराबर टिप्पणी करने वाले कनक तिवारी जब बोलते हैं तो ख़म ठोक कर बोलते हैं . बिनायक सेन के मामले को वो नजदीक से जानते हैं . कभी बिनायक सेन के लिए वकील भी थे . वो मानते हैं की पहली ज़मानत की अर्ज़ी के दरम्यान यह मनोरंजक बात मेरे सामने आई थी कि नारायण सान्याल को जब कत्ल के मामले में आंध्रप्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार कर छत्तीसगढ़ पुलिस को सौंप दिया था तब उसके कुछ अरसा बाद ही छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम लागू किया गया. इस तरह नारायण सान्याल को ही नक्सलवादी घोषित करना तकनीकी तौर पर संभव नहीं था. सान्याल द्वारा दी चिट्ठियां जेल के अंदर यदि किसी व्यक्ति को दी गईं तो जेल के संबंधित अधिकारी अपनी वैधानिक ज़िम्मेदारी से कैसे बरी कर दिए गए? जेल नियम इस संबंध में मुलाकातियों के लिए तो काफी सख्त हैं. अब भला कानून महज नारायण सान्याल को चिट्ठी पहुचाने वाले विनायक सेन को कैसे नक्सल मान कर फैसले सुना रही है .और सजा भी सुना रही है तो आजीवन कारावास की . इस मामले का सबसे हैरान कर देने वाला पक्ष तो ये है की सरकारी वकील ने बिनायक सेन को देशद्रोही ठहराने के लिए कार्ल मार्क्स की किताब दास केपिटल को ढाल बनाया . वकील महोदय के मुताबिक दास केपिटल आतंकवादियों की किताब है . एक कहावत है सब धन बाईस पसेरी . संसदीय लोकतंत्र में आन्दोलन करना ही सबसे बड़ा अपराध है और अगर ऊपर से आपकी आस्था माओवादियों के विचार से मेल खाने लगे तो आप भी देशद्रोही साबित कर दिए जायेंगे .शासक वर्ग वामपंथ की समूची धरा को ही सब धन बाईस पसेरी की निगाह से देखती है . वामपंथ मतलब उग्रवादी , देशद्रोही . किसी ने सही कहा है छत्तीसगढ़ के आदिवासी का मतलब माओवादी . अभी छत्तीसगढ़ सरकार का एक विज्ञापन आया है . विज्ञापन में दिखाया गया है की माओवादियों के कारण बच्चों के शिक्षा के मौलिक आधिकार का हनन हो रहा है . चलिए संसदीय राजनीति में शासक वर्ग की अपनी मज़बूरी है , मगर मीडिया की ऐसी क्या मज़बूरी जो वो सत्ता द्वारा प्रचारित धारणा से ही ग्रसित हो जाती है . आशुतोष की मान्यता एक धीर -गंभीर पत्रकार की है . मगर अपनी इस टिप्पणी के बाद वो लालकृष्ण आडवाणी के समकक्ष खड़े नजर आते हैं . १९९८ में जब लाल कृष्ण आडवाणी गृहमंत्री थे , तब उन्होंने नक्सल प्रभावित राज्यों के सम्मलेन में कहा था , नक्सलवाद भारतीय स्वप्न का शत्रु है और हमें मिल -जुल कर इस शत्रु को समाप्त करना चाहिए . अव्वल नक्सलवाद न हो अल कायदा का आतंकवाद हो . सालों पहले नेपाल के माओवादी आन्दोलन को अमेरिका के राजदूत माइकल मलिनोवासकी ने अलकायदा की संज्ञा दे डाली थी . जबकि नेपाल के लोग इसे जन विद्रोह कहते हैं और अब तो माओवादी पार्टी जनता के द्वारा चुना गया नेपाल का सबसे बड़ा राजनीतिक दल भी .

हालाँकि जहां तक विनायक सेन को सुनाई गई सजा का सवाल है, तो उस फैसले में उन्हें माओवादियों का समर्थक और संदेशवाहक बताया गया है, माओवादी नहीं. देश ही नहीं, दुनिया भर में इस फैसले की खामियों की ओर उंगलियां उठ रही हैं. यहाँ मुझे राजेश जोशी की वो कविता याद आ रही है - मारे जायेंगे !!!