रविवार, 19 दिसंबर 2010

पैरवी भोगवाद की

एक और पुंसवादी फैसला .कोर्ट अब बेड रूम के मुतल्लिक भी फैसले लेने लगी है .लिव इन रिलेसनसिप पर आया कोर्ट की परिभाषा पुंसवादी ही है . संभोग के दौरान औरत की सहमती थी या नहीं , यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है , जिसे एक औरत ही परिभाषित कर सकती है . कानून नहीं . कानून की धारा या व्याख्या नर -पुंगवों ने अपनी मर्दानगी की सत्ता बनाने के लिए गढ़ी है यह कौन नहीं जनता है कि किसी भी औरत को सम्भोग से पूर्व रिझाना पड़ता है और रिझाने कि प्रक्रिया में वायदे और समझौते भी करने पड़ते हैं , जो कि एक नेचुरल फिनोमिना है .लिव इन रिलेसन सिप और विवाह संस्था में सिर्फ एक बारीक़ सा अंतर है . विवाह भी मर्द को औरत के साथ सम्भोग की वैधानिकता देता है और लिव इन रिलेसन सिप में भी संभोग से पूर्व मर्द और औरत के बीच करार और समझौते किये जाते हैं . लेकिन सवाल है की सम्भोग के दौरान शारीर की रजामंदी महत्वपूर्ण है या मन और दिल की सहमति. ज्वाइंट वुमेन प्रोग्राम का एक सर्वे है , जिसमे कहा गया है की प्रतिदिन सात में से एक औरत अपने पति के द्वरा बलत्कृत होती है . ये औरते मुकदमा इसलिए नहीं कर सकती , क्योंकि कानून इसके पक्ष में नहीं है और समाज इस बात की इजाजत नहीं देता .
पंचायत का तंत्र वर्चस्वशील पुरुष व्यवस्था द्वारा संचालित है . वही नियामक है . सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालत तक महिला जजों का अनुपात पुरुषों की तुलना में न्यून ही है . जाहिर है फैसले भी पुरूषों के पक्ष में ही आयेंगे . २००७ में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार के प्रदीप कुमार के मामले में एक हैरतंगेज फैसला दिया था .मामला था की प्रदीप कुमार नाम के व्यक्ति ने एक लड़की के साथ शादी का वायदा कर उससे देहिक संबध बनाया . प्रदीप ने जब उस लड़की से शादी नहीं की तो उसने वादाखिलाफी के तहत प्रदीप पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज किया . निचली अदालत में प्रदीप पर आरोप तय हुआ और पटना हाई कोर्ट ने भी निचली अदालत के फैसले को बरक़रार रखा ... इस आदेश के खिलाफ जब प्रदीप कुमार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की तो कोर्ट ने प्रदीप के पक्ष में फैसला सुनाया . कोर्ट का तर्क था की शादी के वायदे पर किसी लड़की की सहमति से किया गया सहवास बलात्कार नहीं है , यदि ऐसी सहमति डरा कर या उत्पीडित कर न ली गयी हो . सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय काफी हद तक लाइसेंस टू रेप की अवधारणा से अभिप्रेत है . सेक्स का ताल्लुक सिर्फ शरीर से नहीं है मन से भी है . मन और तन का समर्पण दवाई की खुराक की तरह रोजाना नहीं हो सकता . यह विरल क्षण हफ्ते में दो -चार दिन ही आ सकते हैं . हरेक दिन नहीं . बांकी दिन का सम्भोग तो बलात्कार ही कहलायेगा . प्रदीप और पीडिता साथ -साथ रहते थे .. लिव इन रिलेसनसिप में . कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले से भारतीय मर्दानगी को फिर से सांड होने की खुली छुट मिल गयी है . संकेत स्पष्ट है . औरत के साथ सम्भोग का मालिकाना हक़ तो मर्दों को मिला ही है , अब इस फैसले से मर्दों ने औरतन पर यूज एंड थ्रो का वैधानिक अधिकार भी पेटेंट करवा लिया . मतलब साफ़ है कंजूमर कल्चर की तरह अदालत भी अब भोगवाद की पैरवी कर रही है .
इक्कीसवीं सदी के पब्लिक डोमेन भी बलात्कार को इज्जत लुटने से जोड़कर देखा जाता है . मतलब दया और सहानुभूति की मरहम -पट्टी तक ही इस समाज में इसके इलाज की व्यवस्था है . अगर हम इसे इज्जत जाना न मानकर हिंसा माने तो संभव है बांकी हिंसा के शिकार की तरह बलत्कृत औरतों में भी आक्रोश होगा अपराधबोध नहीं ... बलात्कार की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया काफी जटिल है .इस पर कोई एक तर्क लागु नहीं हो सकता . बलात्कार स्त्री के स्त्री होने की अस्मिता का ही हनन नहीं करता , उसके मन में भावात्मक और मानवीय संबंधों के बारे भी संशय पैदा करता है . स्त्री में चाहे कितना भी रोष हो वह द्वन्द की स्थिति में रहती है .दरअसल सच तो ये है की सच्चरित्रता और पतिव्रता की जो घुट्टी हजारों साल से स्त्री को पिलाई जा रही है , उसी की आड़ में मर्दानगी उसे बार -बार कुचलती -मसलती आ रही है .

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